बीएनपी न्यूज डेस्क। Gyanvapi in Varanasi वाराणसी में ज्ञानवापी परिसर अकेला नहीं है, जहां सनातनी आस्था केंद्र का प्रमाण मिल रहा हो। काशी में ही ऐसे अनेक स्थल हैं, जिनकी बुनियादों और खंडहरों पर मस्जिदों और दरगाहों के कंगूरे चमक रहे हैं। हर ओर जहां देखो मस्जिदें हैं या मजार। बकरिया कुंड का यह इलाका देखकर कौन विश्वास करेगा कि कभी यह मंदिरों और बौद्ध विहारों से भरपूर काशी का प्राचीन ‘बालार्क’ क्षेत्र हुआ करता था! ऊंचे टीले पर बना मछोदरी का ओंकारेश्वर मंदिर कब्रिस्तान से घिरा हुआ है। भारतरत्न शहनाईवादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां दालमंडी के हड़हा सराय के पास जहां रहते थे, वहां के हाटकेश्वर महादेव का मंदिर और अस्थि प्रक्षेप तीर्थ लुप्त हो गए हैं। ये तथ्य उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान द्वारा शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘नमामि काशी – काशी विश्वकोश’ में वर्णित हैं।
इस पुस्तक को प्रकाशित कर रहे भाषा संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष राजनारायण शुक्ल के अनुसार इस पुस्तक के एक खंड – ‘टूटते और बनते रहे मंदिर’ में बताया गया है कि काशी के बहुत से मंदिर, तीर्थ और तपस्थलियां आज मूल स्थानों पर नहीं हैं। कई का अस्तित्व तक मिट गया है। मुस्लिम आक्रांताओं के काल में मंदिरों का बार-बार विध्वंस होने से उनसे रिक्त हुए स्थानों पर और उन्हीं खंडहरों व मलबों के ऊपर मोहल्ले और मकान बसते गए। जिन क्षेत्रों में मुस्लिम बस्तियां बसीं, वहां दोबारा इन मंदिरों का पुनर्निर्माण कठिन से कठिनतर होता गया। देव मूर्तियों को आतताई नजरों से बचाने के लिए धर्मप्राण भक्त मंदिरों की स्थापना घरों की चहारदीवारी के भीतर ही करने को विवश हो गए। काशी विश्वनाथ कॉरीडोर के निर्माण के दौरान बीते बरसों में मकानों के भीतर जो भव्य मंदिर मिले हैं, उनमें ज्यादातर आपको इसी काल के मिलेंगे।
पुस्तक के लेखक विमल मिश्र कहते हैं 11वीं सदी में महमूद गजनवी से लेकर अहमद नियालत्गिन, मोहम्मद गोरी व उसके सिपहसालार कुतुबुद्दीन ऐबक, अलाउद्दीन खिलजी, फिरोजशाह तुगलक, महमूद शाह, सिकंदर लोदी (1400 ईस्वी), बहलोल लोदी, जौनपुर के शरकी बादशाहों, शाहजहां व औरंगजेब के मुगल शासनकाल और उसके बाद भी काशी के देव मंदिरों की दुर्दशा होती रही। अकेले 1194- 97 के दौरान कुतुबुद्दीन ऐबक ने काशी आक्रमण में राजघाट के किले के साथ 1000 मंदिर तोड़ डाले और उनकी अपार संपत्ति 1400 ऊंटों पर लादकर मोहम्मद गोरी को भेज दी। धर्मांतरण की प्रक्रिया इसी समय शुरु हुई बताई जाती है। 13वीं शताब्दी में अलाउद्दीन खिलजी ने एक बार फिर 1000 मंदिरों का विध्वंस कर डाला। इस काल में सिर्फ दो मंदिरों के ही बनने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। 1296 ईस्वी में विश्वेश्वर के सामने पद्मेश्वर नामक मंदिर, जो पद्म नामक साधु ने बनवाया और 1302 ईस्वी में मणिकर्णिकेश्वर का मंदिर, जो वीरेश्वर का निर्माण है।
विश्वेश्वर के मंदिर का निर्माण राजा टोडरमल ने और बिंदुमाधव के मंदिर का निर्माण महाराज मानसिंह ने करवाया, जिन्हें कृत्तिवासेश्वर और काशी के बाकी मंदिरों के साथ औरंगजेब ने एक बार फिर तुड़वा दिया। इनमें विश्वेश्वर, बिंदुमाधव और कृत्तिवासेश्वर मंदिरों की जगह मस्जिदें बनवा दी गईं। इससे पहले शाहजहां ने 76 निर्माणाधीन मंदिर ध्वस्त करा डाले थे। औरंगजेब के काल में तो यह नौबत थी कि काशी में 20 साबुत मंदिरों को खोज पाना भी मुश्किल हो गया। उसने तो काशी का नाम ही बदलकर ‘मोहम्मदाबाद’ रख डाला था। धर्म की दृष्टि से ये 500 वर्ष काशी के लिए बहुत कठिन थे। यह वह काल था, जब संन्यासियों को दीक्षा देने वाले अधिकारी तक खोजने से नहीं मिलते थे।
पुस्तक के अनुसार फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में काशी में बनी ज्यादातर मस्जिदें तोड़े गए इन्हीं मंदिरों के ध्वंसावशेषों पर, या उनकी निर्माण सामग्री से बनीं। इन स्थानों में पहली मस्जिद विश्वेश्वर के मंदिर के स्थान पर बनी। इसे आज ‘रजिया मस्जिद’ के नाम से जाना जाता है। 1447 ईस्वी में बनी जौनपुर की ‘लाल दरवाजा मस्जिद’ में पद्मेश्वर मंदिर का शिलालेख आज तक मौजूद है। औरंगजेब ने विश्वेश्वर मंदिर की जगह ज्ञानवापी मस्जिद बनवाई, जिसकी पश्चिम ओर की दीवारों में मंदिर के गत वैभव के चिह्न आज भी देखे जा सकते हैं। इसे ही आज श्रृंगार गौरी के नाम से जाना जाता है। इसके अलावा बिंदुमाधव और हरतीरथ के कृतिवासेश्वर मंदिरों को तोड़कर ‘धरहरे वाली मस्जिद’ और ‘आलमगीरी मस्जिद’ बनीं।
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