BNP NEWS DESK। Swami Vivekananda भारत भ्रमण के दौरान स्वामी विवेकानंद ने काशी में ही शिकागो जाने का निर्णय लिया था। उन्होंने वर्ष 1889 में प्रतिज्ञा की थी कि ‘शरीर वा पातयामि, मंत्र वा साधयामि या तो आदर्श की उपलब्धि करूंगा, नहीं तो देह का नाश कर दूंगा। वर्ष 1890 में काशी प्रवास के दौरान ही उन्होंने कहा था कि जब तक मैं समाज पर वज्र की भांति बरस नहीं पड़ूंगा, यहां लौटकर नहीं आऊंगा। वैसे स्वामीजी का काशी से रिश्ता जन्म से महासमाधि काल के अंतिम समय तक रहा। उनका इलाहाबाद और गाजीपुर से भी विशेष लगाव था।
वीरेश्वर शिव मंदिर में पूजा अर्चनकर यशस्वी पुत्र का आशीर्वाद मांगने का अनुरोध किया था
Swami Vivekananda स्वामी निखिलानंद ने अपनी पुस्तक में जिक्र किया है कि नरेन्द्रनाथ दत्त के जन्म के पूर्व उनकी मां भुवनेश्वरी देवी ने खुद को एक रात स्वप्न में भोले शंकर का ध्यान करते देखा। इसके बाद उन्होंने काशी में रहने वाली अपनी एक महिला रिश्तेदार से संकठा मंदिर के पास स्थित वीरेश्वर शिव मंदिर में पूजा अर्चनकर यशस्वी पुत्र का आशीर्वाद मांगने का अनुरोध किया था।
12 जनवरी 1863 सोमवार को कलकत्ता में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। मां ने उसका नाम वीरेश्वर रखा लेकिन परिवार के अन्य सदस्यों ने नरेन्द्रनाथ के नाम से उसे संबोधित करना शुरू कर दिया। यही नरेंद्रनाथ बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से विख्यात हुए। युवावस्था में नरेन्द्रनाथ गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस की शरण में रहे। गुरु के स्वर्गवास के बाद वह दक्षिणेश्वर के निकट वराहनगर मठ में गुरु भाइयों के साथ रहने लगे। इसी दौरान भारत भ्रमण के लिए निकले। Swami Vivekananda
उन्हें यहां व्याकरण, संस्कृत व दर्शन की शिक्षा भी दी
Swami Vivekananda वह सबसे पहले बनारस आए और गोलघर में दामोदर दास के धर्मशाला में रुके थे। सिंधिया घाट पर गंगा स्नान के दौरान बंगाली ड्योढ़ी के बाबू प्रमदा दास मित्रा से उनका सामना हुआ तो बगैर बोले ही दोनों के बीच एक संवाद कायम हो गया और प्रमदा दास स्वामीजी को अपने घर ले गए। उन्हें यहां व्याकरण, संस्कृत व दर्शन की शिक्षा भी दी।
स्वामीजी ने बनारस में ही यह निर्णय लिया था कि शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में शिरकत करेंगे। वर्ष 1889 और 1890 में स्वामीजी पुन: परिव्राजक के रूप में बनारस आए तो प्रमदा दास के मलदहिया स्थित बगीचे में रुके। विवेकानंद एक कुशल गायक तो थे ही साथ में मृदंग बजाने में भी सिद्धहस्त थे। Swami Vivekananda
इलाहाबाद में उनकी एक मुसलमान फकीर से मुलाकात हुई
1889 के अंत में वह वाराणसी में बाबा विश्वनाथ और मां अन्नपूर्णा का आशीर्वाद लेने आये थे। यहां उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि या तो आदर्श की उपलब्धि करूंगा, नहीं तो देह का ही नाश कर दूंगा। इसी दौरान उनको पता चला कि उनके गुरु स्वामी योगानंद इलाहाबाद में बीमार हैं। उन्होंने तुरंत वहां पहुंचने का निश्चय किया। इलाहाबाद में उनकी एक मुसलमान फकीर से मुलाकात हुई जिनके चेहरे पर परमहंस की छवि स्वामीजी को दिखाई दी। इसके बाद स्वामीजी गाजीपुर गए और वहां के प्रसिद्ध संत पवहारी बाबा से मिले।
स्वामीजी पुन: 1890 में काशी आए।
भगवान बुद्ध, शंकराचार्य, चैतन्य महाप्रभु जैसे आचार्य भी अपने संदेश का प्रचार करने के पूर्व भी यहां आये थे। स्वामीजी ने काशी में गंगा घाट, देवालयों के अलावा संत-महात्माओं से सम्पर्क किया। तैलंग स्वामी और स्वामी भास्करानंद से खास मुलाकात की। इस के बाद विश्व धर्म सम्मेलन के लिए शिकागो गए। सितम्बर 1893 को उन्होंने अपना संबोधन दिया। इसके बाद विदेश यात्रा समाप्त कर भारत आए।
काशी में सेवा और धर्म प्रचार के लिए मठ स्थापित
बात जनवरी व फरवरी 1902 की है जब पुन: स्वामी विवेकानंद काशी आए। इस दौरान काशी के पुरोहितों ने उनका खूब सम्मान और स्वागत किया। इस वक्त स्वामीजी अर्दली बाजार स्थित गोपाल लाल विला (वर्तमान में एलटी कालेज) में ठहरे थे। इसी दौरान उनको काशी में सेवा और धर्म प्रचार के लिए मठ स्थापित करने के लिए कुछ लोगों ने सहयोग करने की बात की।
जिस पर वे तैयार हो गए। इसके बाद स्वास्थ्य ठीक न होने के कारण स्वामीजी वापस बेलुर मठ चले गए। 4 जुलाई 1902 को वे महासमाधि में लीन हुए थे। 39 वर्ष 5 माह और 24 दिन की आयु में उन्होंने शरीर त्याग दिया। उन्होंने अपने जीवन काल में ही इस बात की भविष्यवाणी कर दी थी कि मैं 40 वर्ष पार नहीं करूंगा।
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भारत भ्रमण के दौरान स्वामी विवेकानंद ने काशी में ही शिकागो जाने का निर्णय लिया था। उन्होंने वर्ष 1889 में प्रतिज्ञा की थी कि 'शरीर वा पातयामि, मंत्र वा साधयामि या तो आदर्श की उपलब्धि करूंगा
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