BNP NEWS DESK। worship act ज्ञानवापी परिसर के स्वामित्व संबंधी विवाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मंगलवार सुबह महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए वाराणसी की अदालत में लंबित सिविल वाद को पोषणीय माना और कहा कि यह वाद प्लेसेस आफ वर्शिप एक्ट 1991 से बाधित नहीं है।
worship act आदेश सात नियम 11 सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत सिविल वाद निरस्त नहीं किया जा सकता। न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल ने अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद कमेटी व सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड की तरफ से दाखिल पांचों याचिकाओं को खारिज कर दिया है। कोर्ट ने कहा, ज्ञानवापी परिसर का सर्वे आदेश सही है।
उसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता। यह भी स्पष्ट किया कि जब तक कोर्ट से तय नहीं हो जाता तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि ज्ञानवापी परिसर का धार्मिक चरित्र मंदिर है अथवा मस्जिद। कोर्ट ने कहा, यह राष्ट्रीय महत्व का सिविल वाद है न कि दो व्यक्तिगत लोगों के बीच का विवाद। worship act
यह विवाद देश के दो बड़े समुदायों को प्रभावित करता है। पिछले 32 साल से सिविल वाद लंबित है और 25 साल तक अंतरिम आदेश के कारण सुनवाई रुकी रही। राष्ट्रहित में यह सिविल वाद यथाशीघ्र तय होना चाहिए। इसलिए दोनों पक्ष देरी की टैक्टिस अपनाए बगैर सुनवाई में सहयोग करें।
स्वयंभू भगवान विश्वेश्वर नाम मंदिर के जीर्णोद्धार का मार्ग प्रशस्त करने की दिशा में मील का पत्थर साबित माना जा रहा है
worship act कोर्ट ने वाराणसी की अधीनस्थ अदालत को यथासंभव छह महीने में सिविल वाद तय करने का निर्देश दिया है और कहा है कि अनावश्यक रूप से सुनवाई स्थगित न की जाय। स्थगित करने वाले पक्ष पर भारी हर्जाना लगाया जाए। कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) को साइंटिफिक सर्वे रिपोर्ट अदालत में पेश करने का निर्देश दिया और कहा कि जरूरी होने पर सर्वे जारी रखा जाए।
अधीनस्थ अदालत सर्वे को लेकर आदेश जारी कर सकती है। हाई कोर्ट का यह फैसला ज्ञानवापी स्थित स्वयंभू भगवान विश्वेश्वर नाम मंदिर के जीर्णोद्धार का मार्ग प्रशस्त करने की दिशा में मील का पत्थर साबित माना जा रहा है। एएसआइ सर्वे रिपोर्ट के आधार पर ज्ञानवापी परिसर के स्वामित्व विवाद का हल निकल सकेगा।
कोर्ट ने अब तक के सभी अंतरिम आदेश भी समाप्त कर दिए हैं। कहा है कि प्लेसेस आफ वर्शिप एक्ट 1991 में धार्मिक चरित्र पारिभाषित नहीं किया गया है। केवल पूजा स्थल व बदलाव को परिभाषित किया गया है। किसी स्थान का धार्मिक चरित्र क्या है, यह दोनों पक्षों के दावे प्रतिदावे व पेश दस्तावेजी व मौखिक सबूतों के आधार पर सक्षम अदालत ही तय कर सकती है।
ज्ञानवापी परिसर का धार्मिक चरित्र हिंदू है या मुस्लिम, यह साक्ष्यों के आधार पर प्रारंभिक कानूनी मुद्दे नियत कर अदालत ही तय कर सकती है।
कोर्ट ने कहा, 1991 का कानून पूजास्थल में 15 अगस्त 1947 की स्थिति में बदलाव को प्रतिबंधित करता है, किंतु कानून में पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र तय करने की प्रक्रिया नहीं दी गई है। मंदिर पक्ष की तरफ से अधिवक्ता वरिष्ठ अधिवक्ता सीएस वैद्यनाथन, विजय शंकर रस्तोगी, अजय सिंह तथा मस्जिद पक्ष से वरिष्ठ अधिवक्ता एसएफए नकवी, पुनीत गुप्ता, एएसआइ की तरफ से भारत सरकार के अपर सालिसिटर जनरल शशि प्रकाश सिंह ने पक्ष रखा।
हाई कोर्ट के समक्ष तीन मुद्दे थे
पहला -1991 का कानून सिविल वाद पर लागू होगा और आदेश 7 नियम 11के तहत वाद निरस्त किया जा सकता है?
दूसरा- साइंटिफिक सर्वे आदेश पर अनुच्छेद 227की याचिका में हस्तक्षेप हो सकता है?
तीसरा- अदालत ने अंतरिम रोक के बावजूद वाद की सुनवाई की?
फैसले के खास बिंदु …
– दीन मोहम्मद केस (1936) में वर्तमान का कोई भी पक्ष, पक्षकार नहीं था। इस केस में परिसर का धार्मिक चरित्र तय नहीं हुआ था। केवल व्यक्तिगत वाद में मस्जिद में नमाज पढ़ने की इजाजत मिली थी। इसलिए नहीं कह सकते कि विवादित परिसर मंदिर है अथवा मस्जिद।
– मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई। विवाद शुरू से चल रहा है। मंदिर कई बार टूटा और बना। इसलिए सिविल वाद की पोषणीयता प्रभावित नहीं होगी।
– अयोध्या राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद मामले में प्लेसेस आफ वर्शिप एक्ट की धारा 5 की दलील इस मामले में लागू नहीं होगी जिसमें कहा गया है कि रामजन्म भूमि मामले के अलावा अन्य मामलों में 1991 का कानून लागू होगा।
– परिसर का 1947 में धार्मिक चरित्र क्या था, यह तय होना है। इसलिए पुनरीक्षण अदालत के आदेश पर हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
– राखी सिंह व अन्य केस में साइंटिफिक सर्वे किया जा रहा है जिसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
– कोई अंतरिम आदेश जारी नहीं था। इसलिए अदालत का सुनवाई कर आदेश देना सही है। हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।
पांच याचिकाओं का विवरण
– वर्ष 1991 में वाराणसी की अदालत में पं. सोमनाथ व्यास एवं अन्य की ओर से दाखिल किए गए मुकदमे की पोषणीयता को लेकर सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद की ओर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गई थी।
इस आदेश के खिलाफ सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद की ओर से हाईकोर्ट में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गईं थीं
– इस मुकदमे में वाराणसी के सिविल जज (सीनियर डिवीजन फास्टट्रैक) आशुतोष तिवारी ने वादमित्र विजय शंकर रस्तोगी के प्रार्थना पत्र को स्वीकार करते हुए ज्ञानवापी परिसर का एएसआई सर्वे कराने का आदेश दिया था। इस आदेश के खिलाफ सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड और अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद की ओर से हाईकोर्ट में दो अलग-अलग याचिकाएं दायर की गईं थीं।
– पांचवीं याचिका अंजुमन इंतेजामिया मसाजिद की ओर से हाई कोर्ट में दायर की गई थी जिसमें वाराणसी की सिविल जज (सीनियर डिवीजन फास्टट्रैक) की अदालत में लंबित इस मुकदमे की सुनवाई पर रोक लगाने की अपील की गई थी।
हाई कोर्ट की टिप्पणी
-यह दो व्यक्तिगत लोगों के बीच का विवाद नहीं है। यह दो बड़े समुदाय को प्रभावित करता है। पिछले 32 साल से लंबित है, 25 साल तक अंतरिम आदेश के कारण सुनवाई रुकी रही। राष्ट्रहित में इसे जल्द तय होना चाहिए।’
‘जब तक कोर्ट से तय नहीं होता नहीं कह सकते हैं कि ज्ञानवापी परिसर का धार्मिक चरित्र मंदिर है अथवा मस्जिद’
यह है पृष्ठभूमि और दलील
भगवान आदि विश्वेश्वर विराजमान की तरफ से वाराणसी की अदालत में 1991 में दाखिल मुकदमे में विवादित परिसर हिंदुओं को सौंपे जाने और वहां पूजा अर्चना की इजाजत दिए जाने की मांग की गई थी।
– मुस्लिम पक्ष की दलील थी कि 1991 के प्लेसेस आफ वर्शिप एक्ट के तहत आदि विश्वेश्वर के मुकदमे की सुनवाई नहीं की जा सकती है।
-हिंदू पक्ष की तरफ से दलील दी गई कि विवाद आजादी से पहले का है और ज्ञानवापी विवाद में प्लेसेस आफ वर्शिप एक्ट लागू नहीं होगा।
The Review
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ज्ञानवापी परिसर के स्वामित्व संबंधी विवाद में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मंगलवार सुबह महत्वपूर्ण निर्णय सुनाते हुए वाराणसी की अदालत में लंबित सिविल वाद को पोषणीय माना
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