BNP NEWS DESK। Subhash Chandra Bose नेताजी सुभाष चंद्र बोस जब 15-16 साल के अवस्था में थे, उन दिनों उन्होंने तब अपने जन्मभूमि कटक से कुल नौं ऐतिहासिक पत्र अपने मां श्रीमती प्रभावती देवी को लिखे थे जो अब हमें ‘नेताजी संपूर्ण वांङमय’ के खण्ड एक में मिलता है। यहां मैं उन पत्रों में से छठवें पत्र के कुछ अंशों का जिक्र करूंगा जब उन्होंने कक्षा 10 के विद्यार्थी थे। आज हम इन पत्रों से उनके उस समय के मनःस्थिति को जान सकते हैं, बालक सुभाष के मन में किस प्रकार देश के प्रति छटपटाहट, समाज के प्रति अपनी मनः भावना तथा धर्म के प्रति कितनी गहरी आस्था रही हैं यह पत्र ही उसका प्रमाण है। छतवे पत्र में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपने मां श्रीमती प्रभावती देवी को लिखते हैं— “आदरणीय मां,
भारत भूमि भगवान को बहुत प्यारी है
Subhash Chandra Bose भारत भूमि भगवान को बहुत प्यारी है। प्रत्येक युग में उन्होंने इस महान भूमि पर त्राता के रूप में जन्म लिया है, जिससे जन-जन को प्रकाश मिल सकें, धरती पाप के बोझ से मुक्त हो और प्रत्येक भारतीय के हृदय में सत्य और धर्म प्रतिष्ठित हो सकें। भगवान अनेक देशों में मनुष्य के रूप में अवतरित हुए हैं, लेकिन किसी अन्य देश में उन्होंने इतनी बार अवतार नहीं लिया जितनी बार भारत में लिया है। इसीलिए मैं कहता हूं कि यह भारत हमारी माता, भगवान की प्रिय भूमि है। मां! तुम स्वयं देखो कि इस देश में तुम जो कुछ भी चाहो मिल सकता है।
अधिकतम ताप वाला ग्रीष्म, अधिकतम शीत वाली शरद ऋतु, अधिकतम वर्षा और फिर हृदय में अपार प्रसन्नता का संचार करने वाले हेमंत और बसंत—तुम जो कुछ भी चाहो। दक्षिण में हमें गोदावरी नदी मिलती है, जिसका निर्मल जल उसके तटों का स्पर्श करता हुआ समुद्र की ओर लगातार बहता रहता है—ऐसी है वह पावन नदी। Subhash Chandra Bose
अपने राज्य और वैभव को वनवास के लिए त्याग दिया
उसे देखकर और उसके विषय में सोचकर हमारी आंखों के सामने रामायण में वर्णित पंचवटी का दृश्य नाच उठता है—हमारे दृष्टि-पथ पर राम, लक्ष्मण और सीता आते हैं, जो बड़ी प्रसन्नता से गोदावरी के रम्य तट पर अपना समय बिता रहे हैं और जिन्होंने अपने राज्य और वैभव को वनवास के लिए त्याग दिया; कोई भी सांसारिक चिंता या कष्ट जिनके संतुष्ट मुखमंडल को प्रभावित नहीं कर सका।
यह त्रिमूर्ति प्रकृति और परमेश्वर की पूजा में अपार प्रसन्नता के साथ अपना समय बिता रही
ऐसी यह त्रिमूर्ति प्रकृति और परमेश्वर की पूजा में अपार प्रसन्नता के साथ अपना समय बिता रही है। इधर हम हैं कि हमारा समय व्यर्थ की सांसारिक चिंताओं में नष्ट हो रहा है। कहां है वह प्रसन्नता? कहां है वह शांति जिसके लिए हम बेचैन हैं? शांति तो तभी मिल सकती है जब हम भगवान के ध्यान में डूबें और भगवान की पूजा करें। Subhash Chandra Bose
अगर इस धरती पर किसी भी प्रकार से शांति आनी है तो वह इसी तरह आएगी कि प्रत्येक घर में भगवान का भजन कीर्तन गूंजे। जब मैं उत्तर दिशा की ओर देखता हूं तो मेरे दृष्टिपथ पर एक और भी अधिक भव्य का दृश्य आता है—मुझे वह पवित्र गंगा दिखाई देती है, जो न जाने कब से बह रही है, और जिसकी कल्पनामात्र से मेरे सामने रामायण का एक और दृश्य झलक आता है। मैं देखता हूं एक वन में ध्यानमग्न वाल्मीकि की कुटी को, और फिर उस महर्षि के मंत्रोंच्चारण से वातावरण गूंज उठता है जो पवित्र वैदिक मंत्र हैं—और फिर मैं देखता हूं मृगचर्म पर बैठे उस वयोवृद्ध ऋषि को अपने दो शिष्यों कुश और लव के साथ, जो उनसे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। विषधर सर्प ने भी अपना स्वभाव त्याग दिया है, और शांत भाव से फन उठाए चुपचाप मंत्रोंच्चारण सुन रहा है।
अपने धर्म से विमुख हो जाने के कारण हम ऐसे उदात्त और उत्कृष्ट वर्णनों को समझने में असमर्थ रहते हैं
ढेर के ढेर पशु गंगा में प्यास बुझाने के लिए आते हुए अचानक ठिठक जाते हैं जिससे वे उन पवित्र मंत्रों को सुन सकें। पास में ही अधलेटा एक हिरण टकटकी लगाए महर्षि को देख रहा है। रामायण में जो कुछ भी है कितना उदात्त है। घास के एक छोटे से तिनके तक का वर्णन कितनी उत्कृष्टता से किया गया है। Subhash Chandra Bose
परंतु यह कितने दुःख का विषय है कि अपने धर्म से विमुख हो जाने के कारण हम ऐसे उदात्त और उत्कृष्ट वर्णनों को समझने में असमर्थ रहते हैं। मुझे एक और दृश्य याद आ रहा है : गंगा इस संसार का समस्त कलुश ढो कर ले जाती हुई निरंतर बह रही है, उसके तट पर योगिजन तपस्यारत है। कुछ ही आंखें अधमुंदी हैं और वे प्रातः की प्रार्थना में निमग्न हैं। कुछ ने प्रतिमाएं प्रतिष्ठित की हैं और वनफूलों, चंदन और धूप-दीप से उनकी पूजा कर रहें हैं।
कुछ गंगा के पवित्र जल में स्नान कर अपने आपको निर्मल बना रहे
उनमें से कुछ मंत्रोंच्चारण कर रहे हैं, जिनकी ध्वनि से वातावरण गुंज रहा है। कुछ गंगा के पवित्र जल में स्नान कर अपने आपको निर्मल बना रहे हैं। और कुछ अन्य, पूजा के लिए फूल चुनते हुए गुनगुना रहे हैं। यह सब कितना महान है, और आंखों और मन के लिए कितना सुखद। लेकिन आज वे सब मंत्रदृष्टा ऋषि कहां है? उनकी पूजा और उनके संस्कार? यह सब सोच कर हृदय विदीर्ण हो जाता है। हमने अपना धर्म खो दिया है और वस्तुतः सब कुछ खो दिया है—अपना राष्ट्रीय जीवन भी।
अब हम एक दुर्बल, गुलाम, धर्मविहीन और श्राप-ग्रस्त राष्ट्र बन कर रह गए हैं। हे भगवान! भारत क्या था और आज पातन के किस गर्त में पहुंच गया है। क्या तुम अब भी आकर इसका उद्धार नहीं करोगे? यह तुम्हारी ही भूमि है। लेकिन देखो प्रभु! आज उसकी दशा कैसी है। कहां है वह सनातन धर्म, जिसकी स्थापना तुम्हारा वरद् पुत्रों ने की थी? वह धर्म और वह राष्ट्र, जिसकी स्थापना और जिसका निर्माण हमारे पूर्वज आर्यों ने किया था, आज धूली-धूसर है। हे करुणाकर। हम पर दया करो और हमें बचाओ। Subhash Chandra Bose
मां, जब मैं कोई पत्र लिखने बैठता हूं तो मुझे ध्यान ही नहीं रहता कि क्या और कितना लिखना है। जो कुछ भी मुझे तत्काल सूझता है, मैं लिख देता हूं और यह सोचने की चिंता नहीं करता कि मैंने क्या लिखा है और क्यों लिखा है। मैं जो चाहता हूं और मेरा मन मुझे जैसे प्रेरित करता है वैसे मैं लिखता जाता हूं। अगर मैंने कोई अनुचित बात लिख दी हो तो आप मुझे क्षमा करेगी।
—प्रस्तुति
संजय भट्टाचार्य,राष्ट्रीय सचिव,
आल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक
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